भारतीय शिक्षा की प्रतिस्थापना

शिक्षा में आमूलचुल परिवर्तन होना चाहिए, ऐसा भारत की स्वाधीनता के बाद लगभग प्रत्येक शिक्षामंत्री के साथ शिक्षाविद्दो, सामाजिक अग्रणीयों, तत्त्वचिंतको का मत रहा। शिक्षा में परिवर्तन की अनिवार्यता सबने अनुभव की, किन्तु कोई ठोस बदलाव हुआ दिखाई नहीं दे रहा हैं।

  • शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिए, ऐसा भी सबने कहा। आज भी, UGC विश्वविद्यालयों को स्वायत्त ही बताती हैं, पर क्या वह सही अर्थ में स्वायत्त हैं ?


  • शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिए। पर हम तो अंग्रेजो की ही शिक्षा चला रहे है, मेकोले शिक्षा पद्धति का दोष देकर - विलाप करते हैं।


  • आज की शिक्षा तो केवल नौकर पेदा करने के लिए हैं। फिर भी हम सब उसीमे लगे हुए हैं।


  • यह तो केवल रट्टा मारकर पास हो जाना ही शिक्षा नहीं होती, पर हमारे बच्चें ऐसे ही विद्यालय में पढ रहे हैं।


  • क्या जिनके अच्छे गुण आयें है, वही जीवन में सफल होंगे ? बाकी सबका जीवन में निष्फल माने जायेंगे।


  • शिक्षा चरित्र निर्माण नहीं कर रही हैं, ऐसी व्यथा हैं किन्तु सफल प्रयास दिखाई नहीं दे रहे हैं।


  • क्या सबको गणित, विज्ञान और अंग्रेजी ही पढाना हैं ?


  • मातृभाषा में शिक्षा होनी चाहिए पर हम सब तो अंग्रेजी माध्यम में ही शिक्षा दे रहे हैं और दिलवा रहे हैं।



कारण

  • इन प्रश्नों का समाधान मिलना चाहिए, ऐसा सबको लगता हैं, पर ऐसा नहीं हो पा रहा है। कारण एक मात्र हैं - आत्मविश्वास का अभाव । आत्मविश्वास क्यों नहीं हैं ? क्योंकि हिन भावना से ग्रस्त हैं। स्वयं को, स्व के विचार को निम्न समझकर अंधानुकरण को ही, दिखावे को ही सच मानकर उनका ही अनुकरण कर रहे हैं। इसलिए स्व के आधार पर की हुई रचना पर विश्वास नहीं बैठता हैं। निश्चित ही प्रारंभ चुनौती पूर्ण होगा पर रास्ता तो वही हैं।

तत्कालीन उपाय

  • जो माता-पिता समझदार थे, वे हाथ पे हाथ रखकर नहीं बैठे। उन्होंने अपने बच्चों को होम स्कूलींग करवाना प्रारंभ कर दिया, शिक्षा तो स्कूली ही होती थी पर घर में अपने विचार के अनुसार, विषय और रूची के अनुसार, शिक्षा का प्रारंभ किया। ओर भी कंई प्रयोग हुए, हो रहे है जैसे कि अनस्कुलींग, डीस्कुलींग, ओपन लर्नींग, प्रोजेक्ट लर्नींग और ऐसे विभिन्न प्रकार के प्रयोग के द्वारा अपने बच्चों का विकास हो, ऐसे प्रयास दिख रहे हैं।
  • जिन संप्रदायों के प्रमुख या संस्थापकने शिक्षा के बदलाव करने का बीडा उठाया हैं, वैसे संप्रदायोने भी अपने संप्रदाय के अनुयायी के लिए शिक्षा की व्यवस्था की। इसमें भी यशस्वी प्रयास हुए हैं पर वह केवल संप्रदायिक अनुयायी के बच्चों के लिए सिमित रहें। इसमें भी अधिकतर तो स्कूली शिक्षा के ही प्रयोग रहें।
  • समविचारी अभिभावकोने साथ मिलकर अपने स्थान पर ही बच्चों के शिक्षा की व्यवस्था की । अपनी समझ के अनुसार, सामर्थ्य और समय की अनुकूलता के आधार पर शिक्षा प्रयोग कियें और आज भी चल रहे हैं।
  • कंई शिक्षक, शिक्षाविद्दोंने अपने बलबूते पर, मिलीजुली प्राचीन और अर्वाचीन के आधार पर रचाये हुए विद्यालय या गुरुकुल प्रारंभ किये।

यह सभी प्रयास प्रशंसनीय हैं। अधिकतर प्रयोग वर्तमान स्थिति से बच्चों को बचाने के उपाय हेतु प्रतिक्रियात्मक दिखते हैं। या वर्तमान प्रवाह के साथ अपने विचार को जोडकर हुए समन्वयात्मक प्रयास दिखते हैं।


मार्गदर्शक

  • ऐसी स्थिति में सही मार्गदर्शन कहाँ से मिलेगा ?
    • भारत एक मात्र ऐसा देश है, जिसके पास शिक्षा का अभूतपूर्व इतिहास हैं। जिससे वे सही अर्थ में शिक्षा को समझ सकते हैं।

    • शास्त्र ग्रंथो को समझकर स्व के आधार पर शिक्षा की संकल्पना हो।


करणीय कार्य

  • दो प्रमुख करणीय कार्य होंगे।
    • अध्ययन और अनुसंधान

    • लोक जागरण

  • इन दो प्रमुख कार्य के अंतर्गत कंई कार्य आयेंगे, जिसमें हम सब सहभागी बन सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति जो इस यज्ञ में सम्मिलित होना चाहता है, वह अपने स्थान पर रहकर भी, अपने सामर्थ्य, आयु और समझ के अनुसार कार्य कर सकता हैं।
  • साहस और अनुकूलता है तो अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देने का प्रयास करे, स्वयं ऐसा शिक्षा केन्द्र खडा करें, ऐसी कोई शिक्षा संस्थान के साथ जूडकर भारतीय शिक्षा की प्रतिस्थापना हेतु प्रयासशील बनें।